पत्ता...(110112)
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खुद को
मैं
वो पत्ता समझता था
जो
मिट्टी के ढेले के नीचे दबा है
जिसे
कोई खिसका नहीं सकता
ये गफतल थी मेरी
कब
पानी बरसा
ढेला घुल गया
कब
हवा चली
मैं
उड़ गया
ये हकीकत है मेरी
खुद को
मैं
वो पत्ता समझता था...
अब
निशान भी धुंधले हो रहे
कुरेदूं
तो दर्द
न खरोचूं
तो
निशान मिट जाने का डर
क्या करूं, कैसे सुलझूं
खुद को
मैं
वो पत्ता समझता था...
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फिर लगा
महसूस हुआ
तुम
वो
गुबार हो
गुबार छंटा
मैं
छूट गया
कह दो
ये सब झूठ है...
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