Sunday, March 28, 2010

कहां जा रहा है माओवाद...?



खतरे का निशान लाल रंग का होता है. भारत में माओवाद लाल रंग का पर्याय बन चुका है. बिहार, झारखण्ड, उडिसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल वो इलाके हैं जहां माओवाद का जाल बेहद मजबूती से बुना हुआ है. लेकिन अब ये जाल और भी महीन और ताकतवर होने वाला है. वजह है माओवाद का कॉरपोरेट कल्चर. जी हां माओवादी कॉरपोरेट कल्चर अपना रहे हैं. और बकायदा बेरोजगारों को तीन हजार रुपए महावार पर नौकरी दे रहे हैं. इतना ही नहीं अगर उगाही ज्यादा की तो इन्सेंटिव भी मिलेगा. जी हां, ये एक भयानक सच है, जो आने वाले समय की तस्वीर की बानगी है. माओवाद की वो ललकार, जिसकी गूंज अभी भले ही ना सुनाई दे, लेकिन जब ये गूंज सुनी जाएगी तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो. माओवादी भारत की बेरोजगारी, अशिक्षा और पिछड़ेपन का सहारा लेकर ऐसी घात करने की ताक में हैं, जिसकी चोट बहुत गहरी होने वाली है.

तनख्वाह में मिलेंगे 3000 रु/ महीना, काम बढ़िया करने पर इनसेंटिव भी मिलेगा. सच मानिए ये किसी कॉरपोरेट कंपनी का विज्ञापन नहीं है. ये विज्ञापन है माओवादियों का उन बेरोजगार युवकों के लिए जिनके पास ना तो नौकरी है, ना तो खाने के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़. बस इसी का फायदा उठाकर माओवादियों ने शुरू कर दी है रिक्रूटमेंट, गरीब और बेरोजगार युवकों को दी जा रही है तीन हजार रुपए प्रति महीना की नौकरी. अगर ये लड़के किसी से पैसों की ज्यादा उगाही कर लाते हैं तो इन्हें अलग से इनसेंटिव भी दिया जाएगा. सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि माओवादी नेतृत्व वाले नक्सल प्रभावित राज्यों के पिछड़े इलाकों में माओवादियों की ये स्कीम बखूबी काम भी कर रही है. सोचिए खुद अधिकारी इस बात की पुष्टी कर रहे हैं. नक्सलियों के हमलों और उनसे अपनी सुरक्षा के डर से नक्सल प्रभावित राज्यों के उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और यहां तक कि कुछ सरकारी अधिकारी पहले से ही माओवादियों को पैसे देते आए हैं. अब जबकि माओवादी खुलकर भर्ती कर रहे हैं तो इसका अंजाम क्या होगा, कोई भी इसका अंदाजा आसानी से लगा सकता है. सिर्फ भर्ती ही क्यों, माओवादी तो अफीम की खेती भी कर रहे हैं. अपहरण का धंधा तो पहले से ही चल रहा है. अब तो इनके कैडर में काम करने के लिए लड़के हैं, अफीम की खेती से पैसा आ रहा है, और अपहरण कर पैसे पहले से कमाए जा रहे हैं. यानी पूरा का पूरा माओवाद मुड रहा है नए, आधुनिक, तेज-तर्रार व्यवस्था और रणनीति के साथ, अपना रहा है कॉरपोरेट कल्चर. वो दिन दूर नहीं जब माओवादी CEO अपने आंकड़े वेब साइट पर कुछ इस तरह से देंगें....

1. युवकों की जरूरत, महीने की तनख्वाह, इंसेंटिव, खाना और रहने की जगह मुफ्त.
2. बीते बिजनेस इयर में हमने इतने अपहरण किए, इतनी रैनसम ली.
3. कुल टर्न ओवर इतने रुपए का.
4. इनपुट रकम इतनी, आउटपुट रकम उतनी.
5. पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों की वजह से इतने का घाटा.
6. अगले बिजनेस इयर के लिए इतने की भर्ती और इतनी उगाही का टारगेट.
7. ज्यादा जानकारी और जुड़ने के लिए यहां सम्पर्क करें.

हालांकि, माओवादियों की रणनीति के काट के तौर पर सरकार ने आठ राज्यों के 34 जिलों पर अपनी नजर गड़ा दी है. इसके अलावा, गृह मंत्रालय राज्य पुलिस बलों की भी क्षमता बढ़ाने पर विचार कर रहा है. दूसरी ओर केन्द्रीय बलों की तैनाती कर खुफिया जानकारी को बांटना, प्रशिक्षण में मदद पहुंचाने की प्रक्रिया भी तेज कर दी गई है. इसके बावजूद भारत में बढ़ती माओवाद की गंभीर समस्या को इसी से समझा जा सकता है कि पिछले साल हुई माओवादी हिंसा में करीब 1000 लोगों ने अपनी जानें गंवाई, जो 1971 के बाद सबसे बड़ा आंकड़ा है.

माओवाद का पक्षधर नहीं हूं क्योंकि, इसके बारे में जानकारी सीमित है. लेकिन इतना तो कह सकता हूं कि माओवाद अपनी दिशा से भटक रहा है. आपसे पूछता हूं, कहां जा रहा है माओवाद...?

Friday, March 12, 2010

खेल का खेल !


खेल, जीवन का अहम हिस्सा. खेलने से ना सिर्फ शरीर दुरुस्त बनाता है बल्कि, दिमाग को भी सही समय पर सही निर्णय लेने की तरकीब आ जाती है. और अब तो वो कहावत भी झूठी पड़ गई है कि 'पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब' अब तो हातल ये है कि जो पढ़ता है वो खोता है और जो खेलता वो खेलता है पैसों में.

खेल को लेकर इतनी भूमिका इसलिए बांध रहा हूं क्योंकि जिस खेल के बारे में लिखने जा रहा हूं उसको मैंने कभी नहीं खेला. एक बार फील्ड पर गया तो हॉकी की बॉल उधार मांगकर ले आया और MNIT के बेकार पड़े स्वीमिंग पूल में उससे क्रिकेट खेलनी शुरू कर दी. शायद मेरे ही जैसों की वजह से हॉकी की इतनी बदतर हालत हुई है. 12 मार्च को भारत विश्व हॉकी कप में अपना अंतिम मैच भी अर्जनटीना से 2-4 से गंवा बैठा. दुःख हुआ, और इसके पीछे भी मैं अपने को ही जिम्मेदार मानता हूं, क्योंकि हॉकी खेलने आती तो क्या पता आज मैं टीम में होता और 1-2 गोल कर दी देता. वैसे बता दूं कि मेरे नाना जी और मामा जी दोनों ही हॉकी खिलाड़ी रह चुके हैं. लेकिन मेरा मन कभी हॉकी में नहीं लगा. शायद इसीलिए मम्मी ने भी क्रिकेट नहीं खेलने दी, हॉकी के लिए कहता तो क्या पता हामी भर दी जाती.

पर अब क्या? क्या फिर से हॉकी के साथ वही सलूक किया जाएगा, जो रवैया विश्वकप के पहले था. खेलने के लिए सुविधाएं नहीं, अच्छी किट नहीं, बढ़िया कोच नहीं, सही रणनीति नहीं. क्या खुद को गलाकर खेलें हॉकी हमारे हॉकी खिलाड़ी ?

कुछ दस दिन पहले लुधियाना से एक खबर आई थी कि, अंडर 14 और अंडर 16 के हॉकी खिलाड़ियों को हॉस्टल में 2 दिन तक खाना नहीं मिला. ये मजाक नहीं है, कड़वा सच है. अंडर 14 और अंडर 16 के हॉकी खिलाड़ी जिन्हें कल को राष्टीय खेल का परचम बुलंद करना है, उनको 2 दिन खाना नहीं मिला. ऐसा नहीं है कि बच्चे भूखे रहे, अपने पैसों से खाना खरीद कर खाया. पढ़ना हो तो सेल्फ फाइनेन्सड कोर्स में दाखिला लो, खेलना हो तो खुद के पैसों से खेलों, नौकरी करनी हो तो यंग एंत्रप्रेन्योर बन जाओ. सेल्फ स्किल्ड बनों, मल्टी स्किल्ड बनों पर किसी तरह की मदद की उम्मीद मत करों. भला ऐसे में आप कैसे किसी खिलाड़ी से गोल्ड या विश्वकप की उम्मीद कर सकते हैं.

एक सवाल जो मेरे मन में है, आप सब के बीच भी पहुंचाना चाहता हूं. टीवी पर सहवाग, प्रियंका चोपड़ा और ओलंपिक शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौर हमारी हॉकी टीम के लिए प्रमोशन करते दिखे. लेकिन इनमें से कोई भी हॉकी मैच देखने स्टेडियम पर नहीं पहुंचा. अगर पहुंचा, तो मैं ये चाहूंगा कि मेरी नॉलेज को पूरा करने के लिए ऐसी कोई फोटो या विडियो क्लिप आप में से कोई भी मुझे मेरे ई-मेल (ankura107@gmail.com) पर भेजे दे. आप सब खुद इस बात को समझिए कि कोई भी खिलाड़ी तब तक अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता है जब तक कि उसे हमार-आपका साथ नहीं मिलता. क्रिकेट इसीलिए सफल हुआ क्योंकि क्रिकेट को बच्चा-बच्चा पसंद करता है. बच्चा ठीक से खड़ा होना भी सीख नहीं पाता और पापा उसके हाथ में बैट थमा देते हैं. बेटा बनेगा तो सचिन ही बनेगा. दूसरों को क्या कहूं मैं खुद दो चार हॉकी खिलाड़ियों के अलावा किसी और का नाम नहीं जानता.

खैर जो हुआ सो हुआ. अब नई शुरुआत करनी है. हॉकी के लिए एक साथ खड़ा होना है. कोशिश यही रहेगी कि एक दूसरे के साथ हॉकी से हॉकी मिलाकर खड़े हों.

Wednesday, March 10, 2010

PCB नाराज है... ?



इस पोस्ट को लिखने का सीधा सा मतलब मेरे लिए इतना है कि मैं क्रिकेट का दीवाना हूं. हालांकि अभी क्रिकेट देखने का उतना मौका नही मिल पाता है फिर भी न्यूज रूम में देख ही लेता हूं.

मैं क्रिकेटर बनना चाहता था. लेकिन मम्मी को पसंद नहीं था, मैं कुछ कर भी नहीं सकता था.(आज भी मम्मी के खिलाफ नहीं जा सकता).

क्रिकेट की बात इसलिए कर रहा हूं क्योकिं दो दिन पहले(10 मार्च) का दिन क्रिकेट में ऐसा रहा, जैसा पहले कभी नहीं रहा. क्यों, क्योंकि ये दिन रहा बड़े और कड़े फैसले लेने का. PCB यानी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने अपने दो बड़े क्रिकेटरों, मोहम्मद यूसुफ और यूनिस खान पर अनिश्चितकाल के लिए बैन लगा दिया. अकमल बंधुओं पर 20 लाख का जुर्माना और अपने फोडू बल्लेबाज अफरीदी पर 30 लाख का जुर्माना लगा. जब ऐसे फैसले लिए जाते हैं तो काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा. फैसला जब हमारे और आपके पास पहुंचता है तो एक झटका सा लगता है.

लेकिन क्या PCB सचमुच नाराज है ? क्या इतना कड़ा निर्णय लेना वाकइ PCB के सही रवैये को दर्शाता है ?

मेरी समझ में नहीं. इसलिए, क्योंकि, पहले खबर आई थी कि दोनों खिलाड़ियों(यूसुफ, यूनिस) पर आजीवन पाबंदी लगा दी गई है. फिर एजेंसी के हवाले से खबर आई कि बैन ताउम्र नहीं, बेमियादी है. हो सकता है कि पहले जो खबर मिली उसमें सूत्रों से कुछ गलती हो गई हो, लेकिन इस बात की ज्याद संभावना है कि पाकिस्तान ने अपना फैसला बाद में बदला हो. इसके पहले भी PCB ने अपने कई खिलाड़ियों की करतूतों पर सजा सुनाते हुए आजीवन बैन लगाया था, फिर सजा में ढील दी गई. यहां भी कुछ ऐसा ही लगता है.

यहां तक तो फिर भी बात समझ में आती है कि, आपका अपना खिलाड़ी है, देश के लिए जी जान से खेलता है, थोड़ी नरमी दिखा दी तो क्या गलत किया. लेकिन ये समझ नहीं आता कि आप देश के साथ धोखा करने वाले खिलाड़ी को इतनी कमजोर सजा क्यों दे रहे हैं? जिसने खराब प्रदर्शन किया उसको बेमियादी बैन और जिसपर मैच फिक्सिंग का आरोप है उसपर महज कुछ रुपयों का जुर्माना? फिक्सिंग का जुर्म अभी साबित नहीं हुआ है लेकिन फिक्सिंग को खराब प्रदर्शन से नीचले स्तर का अपराध मानना क्या ये सही है? वैसे खबरें तो ये भी हैं कि दोनों खिलाड़ियों पर नाफरमानी की गाज गिरी है. दोनों खिलाड़ियों को पहले ही आगाह कर दिया गया था कि गुटबाजी नहीं खेल पर ध्यान दो. PCB की तरफ से अभी तक कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा जा रहा है. बात धुंधलके में है. बात कब साफ होगी पता नहीं. वैसे भी PCB जो चाहता है वहीं करता है. अगर खिलाड़ियों में गुटबाजी है तो इसकी वजह का पता लगाना भी PCB का ही काम है, ना कि सिर्फ सजा देना.

शायद अगला पोस्ट इसके तुरंत बाद मिले. खेल से ही संबंधित होगा. उसमें भी एक गेंद को एक लकड़ी के टुकड़े से मारा जाता है और खिलाड़ी गेंद के चक्कर में चकरधिन्नी बन जाते हैं...

सूचना में कोई गलती हो तो सही जानकारी की प्रतीक्षा में...

Tuesday, March 9, 2010

मेरा पहला ब्लॉग

मंगलवार ०९ मार्च २०१०, हिंदुस्तान के इतिहास का नया अध्याय। महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में स्वीकृति मिली। भारत में महिलाओं के नए युग की शुरुआत। इस मौके पर मैंने भी सोच कि क्यों ना मैं भी काफी दिनों से सोचे जा रहे काम(ब्लॉग लिखना) का श्री गणेश कर दूं, तो कर दिया श्री गणेश, गणेश जी का नाम लेकर।


अपने ब्लॉग का नाम मैंने 'क्या लिखू, क्या कहूं' इसलिए दिया है क्योंकि, मेरी समझदानी थोड़ी देर से काम करती है, समझ नहीं आता कि क्या लिखू, क्या कहूं। वैसे सबसे पहले देश की महिलाओं को बधाई देता हूं, उनकी ऐतिहासिक जीत के लिए। राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल को मंजूरी मिलने से एक संदेश साफतौर से समाज में जाता है कि कोई कितना भी विरोध कर ले, अब महिलाओं को रोक पाना मुमकिन नहीं। यहां पर अपनी आदर्णीय माता जी के बारे में कुछ कहना चाहता हूं. ये महिला बिल अगर बीस साल पहले पास हो गया होता तो मेरी माता जी भी राज्य या लोकसभा की सदस्य होती. मैं भी छत पर बत्ती लगी गाड़ी में धौंस जमाकर घूमता.


वापस महिला बिल के मुद्दे पर आते हैं. सदन में महिलाओं की एक तिहाई भागेदारी अभी भी उतनी आसान नहीं है, जितनी दिख रही है. बिल को अभी लोकसभा में, फिर 15 राज्यों की विधानसभाओं में भी पारित होना है. राष्ट्रपति की मुहर भी लगनी है, हालांकि हमारी राष्ट्रपति महिला है सो इतना तो आश्वस्त हूं कि बिल को दोबारा लौटाया नहीं जाएगा. यहां पर मैं वृन्दा करात के उस बयान का जिक्र करना चाहता हूं जो उन्होंने राज्यसभा में बहस के दौरान दिया, उन्होंने कहा कि 'मुझे पूरा विश्वास है कि महिलाएं अपने कर्तव्य, कर्मठता और बलिदान के बूते, 33 फीसदी के दायरे को बढ़ाकर निश्चित ही 40 से 50 फीसदी तक पहुंचा देंगी।'


वृन्दा करात की इस बात में अहम नहीं, विश्वास दिखता है. निजीतौर पर मुझे महिला आरक्षण के लागू हो जाने पर खुशी होगी। ऐसा मैं इसलिए कहा रहा हूं क्योंकि मेरे घर में चार महिलाएं हैं। मेरी तीन बहने और मेरी मां। इन चारों के साथ रहकर मैंने हमेशा अपने आपको सुरक्षित महसूस किया है। मैं समझता हूं कि महिलाएं हमें हमसे कहीं अच्छी तरह से समझती हैं, भले ही वो किसी भी रूप में क्यों ना हो। मां, बहन या दोस्त। इसके आगे के रिश्तों के बारे में इसलिए नहीं लिख सकता क्योंकि अभी मैं ऐसे किसी रिश्ते से जुड़ा नहीं हूं, जब ये रिश्ता बन जाएगा तो जरूर लिखूंगा...


फिलहाल अपने पहले ब्लॉग पोस्ट में इतना ही लिख रह हूं, आगे अगर समझ सका कि किसी बात पर दो पंक्तियां लिख सकता हूं तो जरूर आप मुझे पढ़ेंगे... शुभरात्रि...