Wednesday, December 1, 2010

भोगस है शीला की जवानी !


शीला, शीला की जवानी...

ऐसा नहीं लगता कि, किसी सी ग्रेड फिल्म का टाइटल है ये। "शीला की जवानी..." फराह खान की नई फिल्म तीस मार खान का सबसे ज्यादा मोस्ट अवेटिंग सॉन्ग। फिल्म शुरू होने के पहले से ही गाने की चर्चा शुरू हो गई थी। फराह खान ने तो बकायदा एलान कर रखा है कि "शीला की जवानी..." जैसा कोई आइटम नंबर आज तक बना ही नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा कुछ भी खास नहीं लगा "शीला की जवानी..." में। मुझे तो "शीला की जवानी..." नहीं भाई। ऐसा लगा जैसे में शकीरा के वाका-वाका और एश्वर्या के इश्क कमीना गानों के डांस की मिमिक्री देख रहा हूं। शीला यानी कि कटरीना को फराह ने डमी की तरह से इस्तेमाल किया है, वो डमी जो शकीरा के जैसे बैले और एश्वर्या की तरह कपड़े पहने दिख रही है। गाने के बोल की बात करें तो "शीला... शीला की जवानी...." सिर्फ इसी लाइन में दम नजर आता है, बाकी तो शीला की जवानी की धूप खिलने से पहले ही उतर गई है।


फराह की शीला में कुछ खास नहीं दिखा, इससे अच्छा तो शिल्पा शेट्टी नाच लेती है। गानों की बात करें तो बाबू जी जरा धीरे चलो, मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने, जबा पे लागा नमक इश्क का, बीड़ी जलइले, शट-अप एन बाउन्स कहीं ज्यादा भाते हैं। शीला की जवानी को हिप-हॉप और रैप करने के चक्कर में फराह ने गोंड दिया है। शीला ने भी सिर्फ डांस पर ही ध्यान दिया है।


फराह तो शीला की टक्कर मुन्नी से भी करा रही हैं। लेकिन भूल गई कि मुन्नी से बेहतर आइटम गर्ल कोई नहीं है। तभी तो मलाइका का जलवा छैइया-छैइया से लेकर मुन्नी बदनाम हुई तक बदसतूर बरकरार है।


तो मैडम फराह, तीस मार खान भले ही हाथ से निकल जाए लेकिन, शीला की जवानी हाथ में आकर भी फिसल गई है...

Thursday, November 25, 2010

26/11 कब मिलेगा इंसाफ...?




















26/11... ये तारीख भारत के इतिहास में मासूम लोगों के खून से लिखी गई है... इस काली तारीख को लिखा गया पाकिस्तान की जमीन से... और ये बात अब किसी से छिपी नहीं है... फिर भी पाकिस्तान खामोश है... भारत ने बहुत से ऐसे पुख्ता सबूत सामने रखे हैं... जो चीख-चीख कर कह रहे हैं कि पाकिस्तान गुनहगार है... लेकिन पाकिस्तान पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है... पाकिस्तान में बैठे दरिंदे... जिन्होंने भारत को ये गहरा जख्म दिया वो फक्र से सिर उठाए घूम रहे हैं... और पाकिस्तान उन्हें हर कदम पर बचा रहा है... पाकिस्तान पर उस अमेरिका का भी कोई असर नहीं पड़ रहा... जिसकी डिक्शनरी में आतंक शब्द का मतलब ही दुश्मन है... ये बात और है... कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पाकिस्तान यात्रा से पहले... पाकिस्तान ने भारत को 13वां डोजियर सौंप कर खानापूर्ति कर दी है... पाकिस्तान शुरू से ही मुंबई हमले पर ढुलमुल रवैया दिखाता रहा है... मुंबई हमले की योजना बनाने वालों... उसे अंजाम देने वालों पर... पाकिस्तान की ओर से कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई... और पाकिस्तानी हुकूमत के अंदाज से तो यही लगता है कि कुछ होगा भी नहीं... भारत ने मुंबई हमले की बरसी से ठीक पहले कड़े शब्दों में एक नोट पाकिस्तान को भेजा है... जिसमें मुंबई हमले में शामिल लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकियों पर... बेहद धीमी कार्रवाई किए जाने पर चिंता जताई गई है... जबकि जून में इस्लामाबाद में पाकिस्तानी गृह मंत्री को... गृह मंत्री चिदंबरम ने वो सात नाम सौंपे थे जिन्होंने मुंबई हमले की योजना बनाई थी... 26/11 में शामिल सात सरगनाओं के सौंपे गए नामों में... पाकिस्तानी सेना के दो अधिकारियों के नाम भी शामिल थे... मुंबई हमले में ISI का हाथ होने की बात को भी पाकिस्तान सिरे से नकारता रहा है... पाकिस्‍तान कहता है कि उसे मुंबई हमलों के बारे में भारत से और जानकारी चाहिए... ताकि वो आरोपियों के खिलाफ अपने देश में सुनवाई कर सके... लेकिन ये सब पाकिस्तान की बहानेबाजी है... पाकिस्तान जिस तरह से आतंकियों को बचा रहा है... उसे शायद इस बात का अहसास नहीं... कि वो जिस आतंक के ज्वालामुखी को खोद रहा है... उसमें से निकले लावे से वो खुद जल कर खाक हो जाएगा...

Sunday, September 5, 2010

बेचो, बेचो यार ! जब बेचोगे नहीं तो चलेगा कैसे...

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करते हुए ज्यादा वक्त नहीं बीता है... न तो मुझे इतनी समझ है कि किसी को क्रिटिसाइज कर सकूं... लेकिन क्या करूं ब्लॉग बनाया है तो लिखना पड़ेगा... लिखने का ही काम करता हूं तो लिख रहा हूं... ऊपर से कायस्थ हूं, शुरू से सुनता आ रहा हूं कि तुम नहीं लिखोगे तो और कौन लिखेगा... चित्रगुप्त जी की वजह से ऐसा लगता है कि कलम पर हम कायस्थों का पट्टा लिख दिया गया है... क्या लिखूं, क्या कहूं...

एक बात है और वो ये कि जो बातें सुनता आ रहा था वो अब दिखने लगीं हैं... कुछ उदाहरण दूं उसके पहले आपसे पूछता हूं... क्या आपको पता है कि ओडिसा में आजकल क्या हो रहा है... वहां के हालात क्या हैं... अगर आप ऐसा अखबार पढ़ते हैं जो वहां की खबरे कैपचर करता है तो ठीक है... वरना, आपको नहीं पता होगा... उत्तरप्रदेश के पूर्व के हिस्सों में... नेपाल से लगे इलाकों में क्या हो रहा है क्या आपको पता है... अगर आप वहां के रहने वाले नहीं हैं... आपका कोई जानने वाले, नजदीकी वहां का नहीं है तो आपको पता नहीं होगा... क्यों... क्योंकि हमारे सोकॉल्ड नेशनल हिन्दी चैनलों पर ये खबरें नहीं चलाई जा रही हैं... साला मन में सवाल उठता है और कचोटता भी है कि नेशनल चैनल है या दिल्ली का चैनल... दिल्ली में बाढ़ आई हाहाकार मच गया, बारिश हुई तो नेशनल खबर बन गई... डेंगू न हो गया यमराज का प्रमोशनल एड हो गया जिसके लिए प्राइम टाइम में स्लॉट बुक हो गया है... नेपाल से जब नारायणी नदी से पानी छोड़ा जाता है गोरखपुर, देवरिया, पडरौना, कुशीनगर में बाढ़ आती है तब खबर क्यों नहीं बनती... बनती है तो बस एक पैकेज या स्पीड न्यूज में चला दो... डेंगू से कुछ मौते होती हैं तो जैसे जलजला आ जाता है... गोरखपुर, महाराजगंज में इंस्फलाइटिस से सैकड़ो लोग मर जाते हैं कोई खबर तक नहीं चलाता...

कर्मी- सर, खबर आई है, दिमागी बुखार से100 से ज्यादा मर गए, ५०० से १००० के बीच पीड़ित हैं, फुटेज बहुत अच्छी है सर, बच्चे बेड पर पड़े हैं, मां-बाप रो रहे है, अस्पताल में दवा नहीं है, इलाज नहीं हो रहा है

सर- बेचोगे कैसे, बिकेगा... कौन देखेगा तुम्हारा दिमागी बुखार... सब तो डेंगू चला रहे हैं... पैकेज लिख दो... विजुअल अच्छे हो तो अगली शिफ्ट वाले बना लें अगर लगे तो... हमे चलाना होगा तो डेंगू से ओपन करेंगे, लास्ट चंक में रख लेंगे... एक फोनो ले लेना ज्यादा से ज्यादा... वैसे कोई जरूरत नहीं है...

कर्मी- सर, लेकिन बहुत बड़ी खबर है...

सर- हर साल होता है... तुम डिसाइड करोगे क्या बड़ा है क्या छोटा... बॉस को तय करने दो... काम करो और मुझे करने दो...

कर्मी- जी सर, स्टिंग टॉस भी न लिखें गोरख...

सर- अरे यार समझते नहीं हो... कुछ नहीं, सिम्पल रखो, और सुनो, बरसात हो रही है लगातार दिल्ली में जाम, सड़क धंसने के फुटेल निकलवाकर रखो, दो-चार दिन में काम आएगा... फुल डीटेल के साथ...

अक्सर ऐसे ही होता है... भला हो टिहरी का जो एशिया के सबसे बड़े बांधों में से एक है और शिवजी की मूर्ति का जो गंगा में डूब गई... वरना उत्तराखंड के बाढ़ की भी शायद खबर यूं न चलती... बिहार में चुनाव है तो वहां की भी खबरे चल रही है... प्रयोजित जो है...

अभी सिर्फ इतना ही... मिलते हैं छोटे से विराम के बाद...

Friday, August 27, 2010

चीन से हारा भारत...



हम्म्म... तो हार गईं सायना... नंबर वन बनने का सपना भी रह गया... 8-21, 14-21 से जो हारीं सो हारीं... वैसे पहले सेट में जब 0-6 से पीछे रहने के बाद 6-6 की बराबरी की तो लगा शायद फिर से करिश्मा हो और लगातार तीन टूर्नामेंट जीत कर तीसरे नंबर पर और फिर दूसरे नंबर पर पहुंची सायना शायद क्वाटर फाईनल जीतकर विश्व की नंबर वन खिलाड़ी बना जाएं... लेकिन चीन की शियजान ने उनके सपनों की राह में रोड़ा डाल दिया... और खुद को सेक्योर करती हुईं सायना को बाहर का रास्ता दिखा दिया... और इस तरह चीन ने भारत को हरा दिया...

ये तो खेल की बात थी... दो सेट हार कर खेम खत्म और टूर्नामेंट से बाहर... कभी मौका मिला तो जीत लेंगे कोर्ट... लेकिन क्या चीन और भारत के बीच सिर्फ यही एक मैच था... बाकी सब ठीक है... ऐसा लगता तो नहीं हैं... सिर्फ भारत और चीन की बात को रहने दीजिए... इन दो देशों की टंकार पूरे विश्व में गूंज रही हैं... 'द इकॉनमिस्ट' नाम की एक पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी में भारत और चीन के बीच चल रही होड़ को इस वक्त की सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा करार दिया है... संकेत साफ है कि भारत और चीन की दौड़ ने सभी के नीचे की जमीन को हिला कर रख दिया है... कुछ एक रिपोर्ट्स भी यही कहती हैं कि चीन भले ही आगे हो लेकिन भारत भी पीछे नहीं... तो क्या मान लें कि चीन खरगोश है और भारत कछुआ...



खरगोश और कछुए की कहानी पुराने समय की है... कहानी में सीख छिपी है कि जो सतत अपने कर्म में लगा रहता है विजय उसी की होती है... लेकिन अब समय बदल गया है... सिर्फ अपने काम में लगे रहने से ही जीत नहीं मिलती... आपको अपनी मेहनत और लगन के साथ-साथ बहुत कुछ सोच-समझकर और बना-बिगाड़ कर चलना होता है... चीन भी कुछ ऐसा ही कर रहा है... चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर उसके यहां बांध और सड़के बना रहा है और अपने संबंध पाकिस्तान के साथ मजबूत कर रहा है... तो वहीं भले ही भारत कहे कि कुछ नहीं बिगड़ रहा फिर भी खतरा तो है क्योंकि दो दुश्मन गहरे दोस्त बन गए हैं... क्या वाकई चीन से खतरा नहीं है... अगर ऐसा है तो क्यों चीन ने एक भारतीय लेफ्टिनेंट जनरल को चीन में आने का वीजा नहीं दिया... क्यों उसने कह दिया कि कश्मीर झगड़े वाली जगह है और वहां रहने वाले किसी भी व्यक्ति को चीन में नहीं घुसने दिया जाएगा... चीन ने तो कश्मीर से आने वालों के लिए अलग वीजा ही बनवा दिया है... क्या ये काम करके चीन ने पाकिस्तान के प्रति अपनी गहरी दोस्ती का सबूत नहीं दिया है...

भारत और चीन के बीच की प्रतिस्पर्धा को विश्व भी गंभीरता से ले रहा है... इसकी चर्चाएं भी गाहे-ब-गाहे हो जाती है... अक्सर भारत को प्लस प्वाइंट भी दे दिया जाता है... और चीन को उसके तरीकों के लिए सुनना पड़ता है... लेकिन नतीजा क्या होता है... आगे कौन रहता है... क्या शालीनता से रहना... दूसरों से व्यवहार बनाना... खुद को हमेशा प्रजातांत्रिक साबित करना ही सबकुछ है... सिर्फ दूसरों की वाह-वाही मिल जाने भर से हम जीत जाएंगे... या भारत चीन से हार जाएगा...

Monday, July 26, 2010

ASP (एस्प)








क्या है एस्प? एस्प एक प्रकार का जहरीला सांप होता है... जो डस ले तो इंसान पानी मांगने लायक भी ना रहे... कुछ ऐसे ही लोगों की मेहमाननवाजी हम करते आए हैं... कर रहे हैं और शायद करते रहेंगे... इशारा है अबु और कसाब जैसे लोगों की ओर... जिन्हें हम-आप आतंकवादी के तौर पर जानते हैं... वो शुरू से ऐसे थे... हालात ने ऐसा बनाया... इससे फर्क नहीं पड़ता... जो सच्चाई है वो ये कि हमारी सरकार इन्हें अपने दामाद की तरह रखती है... खातिरदारी ऐसी की किसी को ब्योरा देने की जरूरत नहीं...

ताजा मामला ही लीजिए... एक आतंकी ने दूसरे आतंकी पर जानलेवा हमला किया... पुलिस, प्रशासन सकते में आ गए... बकायदा इलाज करवाया गया... जान बचाने के लिए जेल तक बदल दी गई... आखिर ऐसा किया क्यों गया... दोनों पर केस चल रहा है... एक ना एक दिन सजा मिलेगी... अगर फांसी की सजा ना हो तो बेकार है हमारा कानून... आप खुद सोचिए... इनकी सुरक्षा पर साल में करोड़ों खर्च होते हैं... सुरक्षा से अलग इनकी जरूरतों पर लाखों खर्च होते ही होंगे... ज्यादा लगें तो भी आश्चर्च नहीं... खुद मुंबई के गृहराज्य मंत्री ने भी जेल का दौरा करने के बाद कहा कि अबु की बैरक में इंतजाम देखकर दंग रह गया... उसके कपड़े बाहर से धुल के आते हैं... कपड़े सलीके से रखें हैं... जेल की दीवारों पर मॉडल्स की तस्वीरें चस्पा हैं... दूसरी सुख-सुविधाएं भी हो तो आंखें मत फाड़िएगा... ये तो हमारी जेलों में नॉर्लम बाते हैं... लेकिन एबनॉर्मल ये लगा कि मंत्री जी इतना क्यों चौक गए... उनका भी कोई दूर या पास का साथी कभी न कभी तो जेल गया ही होगा... उस वक्त उसे भी वैसी ही सुविधाएं मिली होंगी जिसकी वो बात कर रहे हैं... तो इतना हल्ला क्यों... या कभी वो गलती से जेल चले गए तो क्या उन्हें ऐसी आलीशान खातिरदारी नहीं मिलेगी...

सुरक्षा इंतजामों की बात हो रही थी... मुंबई के गृहमंत्री आर आर पाटिल जी ने कहा है कि अबु सलेम के आरोपो की जांच होगी... कि उसकी जान को खतरा था... यानी अब सरकार ना सिर्फ आतंकियों की सुरक्षा करेगी बल्कि उनके लिए जांच और शायद मुकदमे भी लड़ेगी... वाह री सरकार वाह... आतंकियों की सुनवाई हो रही है और जब बिहार में सत्ता पक्ष का नेता गांव के लड़के को उलटा लटकाकर उसके तलवों पर लाठी बरसाता है तो लड़के के लिए कुछ नहीं किया जाता... सिर्फ नेता जी को पार्टी से निकालने का फरमान आता है... लड़का मर जाए, कोई अंग भंग हो जाए तो... तो क्या, नेता जी पर भी केस चलेगा... एक पार्टी ने निकाला है तो दूसरी पार्टी का टिकट मिल जाएगा... भारतीय राजनीति जिंदाबाद...

एक आतंकी दूसरे को मारता है तो मारने दो... बचा क्यों रहे हो... जब उन्होंने हजारों को मारा... लाखों को बर्बाद किया तब... इतने साल तक तो पहले अबु को पकड़ नहीं पाए... जब पकड़ भी लिया तो आठ सालों से उसे भी झेला रहे हो और जनता को भी... जब पकड़ा गया था तो मरियल सा दिख रहा था... अब देखो, हट्टा-कट्टा हो गया है... जितने उसके डोले हैं शायद उतनी मेरी जांघ होगी... दौसा को देखों... इतनी उम्र में तो हमारे आपके बुजुर्ग झुक जाते हैं ज्यादातर... वो इतना चुस्त है कि अबु जैसे पर ना सिर्फ धारदार हमला करता है बल्कि दो-चार हाथ भी लगा देता है... देश की जनता का हाल देखो... एक दिन मजदूरी ना करें तो शाम को फाका हो जाता है... तब सरकार उनको रोटी देने नहीं आती है... और आतंकियों को हफ्ते में एक दिन नॉन-वेज खिलाने का पैसा है सरकार के पास... ताकि कैदी तंदरुस्त रहें... अरे यार फांसी दो और खेल खत्म करो... जिसके बार में सभी की एक राय है... कोई भी मानवाधिकार संगठन खड़ा नहीं होने वाला कि क्यों ऐसे लोगों को फांसी दे रहे हो... तो लटका दो इन्हें... इंतजार क्यों और किसका...

क्या इंतजार एक और कंधार का है... एक छूटा है तो इतना हल्ला काट रहा है... दो-चार और छूट गए तो क्या होगा...

वैसे एक बात कहूं... हमारे जैसे लोग सिर्फ लिख ही सकते हैं... जब करने की बात आती है तो दस तरह की बातें सोचने लगते हैं कि क्या करें और क्या ना करें... शायद हम सिर्फ लिखने के लिए हैं... कुछ करने के लिए नहीं... ऐसा मुझे लगता है... कोई दिल पर ना ले... दिल पर ले अगर... तो फिर दिमाग में भी उतारे... तब तो कुछ बात बने... वरना आप कोसते रहो... देश के दामद बनकर तो वो ऐश कर ही रहे हैं...

Saturday, June 26, 2010

अभिमन्यु

एक अभिमन्यु महाभारत का था, ये अभिमन्यु भारत में था. वो अपने पिता से चक्रव्यूह को तोड़ने की कला अपनी मां के पेट से सीख कर आया था. ये अपने नाना से चक्रव्यूह रचने की कला सीख कर पैदा हुआ था. वो अभिमन्यु सातवां द्वार तोड़ना नहीं सीख सका था क्योंकि, उसकी मां सो गईं थी. ये अभिमन्यु भी कहीं चूक गया तभी तो बिखर गया.



मैं उस घटना की बात कर रहा हूं जो मेरे पैदा होने से साढ़े चार साल पहले, जून 1980 में घटी. वो अभिमन्यु रथ से गिरकर, अपनों के ही तीरों से भेद दिया गया था. ये अभिमन्यु अपने उड़न खटोले के साथ गिरा और कहने वाले तो ये कहते हैं कि इसे मारने की भी साज़िश अपनों ने ही रची.(इस बात को जोर दे कर इसलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि, 8-10 आर्टिकल पढ़ लेने से, 10-20 लोगों से सुन लेने भर से आप उस वक्त की सच्चाई या सच्चाई के अहसास को नहीं जान सकते.)
उस अभिमन्यु ने अपने ही भाइयों और चाचा के विरुद्ध युद्ध लड़ा तो, ये अभिमन्यु भी अपने ही लोगों के लिए, अपनों से ही लड़ता दिखा. वो अभिमन्यु भी अपने शत्रुओं को पराजित करने के लिए उतावला था, इसका भी उतावलापन कुछ कम नहीं था. इस अभिमन्यु को हर चीज में आगे रहने, आगे बढ़ने, जीतने और कभी ना हारने का जुनून था. उस अभिमन्यु ने भले ही कभी राज ना किया हो लेकिन, इस अभिमन्यु ने राज किया, भले ही इसके हाथों में डोर नहीं थी, लेकिन सबकी लगाम यही कसता था. आलम ये था कि दरबार के मंत्रियों को इस अभिमन्यु की चप्पलें उठाते भी देखा गया.
उस अभिमन्यु के पिता का गांडीव गरजता था तो, इस अभिमन्यु की मां की हुंकार से सभी हिल जाते थे. वो अभिमन्यु भी हठी था तो, इसे भी कुछ कर गुजरना था, भले ही, उसके लिए कुछ भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े. इस अभिमन्यु ने कभी-किसी की परवाह नहीं की. उस अभिमन्यु के पिता को भी एक बार अहंकार ने जकड़ा था तो, इस अभिमन्यु की मां भी अहं का शिकार हुई. जब वो अभिमन्यु मारा गया तो उसके पिता उससे दूर कहीं और लड़ रहे थे. जब ये अभिमन्यु मरा तो उसके और उसकी मां के बीच की दूरियों की कहानियां सबके बीच चर्चा में थी.
उस अभिमन्यु ने महाभारत को जीत एक नया साम्राज्य खड़ा करना चाहा. इस अभिमन्यु ने भी भारत को बदल एक नए भारत का सपना संजोया. वो अभिमन्यु मारा गया, उसके पिता ने उसका बदला लिया, महायुद्ध जीता. मारा तो ये अभिमन्यु भी गया, लेकिन इसकी मां ने रोने के अलावा कुछ नहीं किया और इस अभिमन्यु का सपना अभी भी सपना ही है...

Tuesday, June 8, 2010

सरकार या दलाल ?
















मेरे ब्लॉग का ये पोस्ट पिछले पोस्ट की कड़ी मान कर पढ़ें. बुधवार 9 जून को भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े दो फैसले लिए गए. पहला, केन्द्र ने ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का गठन किया, तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी ने समीक्षा कमेटी बनाई. अगर यही करना था तो 25 साल इंतजार किस बात का किया. क्या भोपाल के लोगों की आहें, रोना और टीस सुनने में मज़ा आ रहा था.

इस घटना से जुड़े एक तथ्य पर गौर करें तो पता चलता है कि ये कांड उस वक्त हुआ था जब कांग्रेस की सरकार थी. फैसला तब आया है जब कांग्रेस की सरकार है. लेकिन इसमें एक और तथ्य भी हैं. आज जो स्थिति है, वो भी कांग्रेस सरकार की ही वजह से है.

2-3 दिसंबर 1984 को जब ये हादसा हुआ उस वक्त राजीव गांधी जी प्रधानमंत्री थे, अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और पी वी नरसिम्हा राव गृहमंत्री थे. हादसे के बाद यूनियन कारबाइड के वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार भी गिया गया था. लेकिन महज कुछ घंटों बाद ही उसे जमानत पर छोड़ दिया गया. ये कोई गलती नहीं थी. गलती इसके साथ हुई. जमानत के साथ एंडरसन पर इस बात की पाबंदी नहीं लगाई गई कि वो देश छोड़कर नहीं जा सकता. साथ ही एंडरसन ने वादा खिलाफी की. उसने कहा था कि केस के मामले में जबभी जरूरत पड़ेगी वो सहयोग देने भारत आएग. लेकिन ऐसा कुछ भी ना हुआ, ना हो रहा है. एंडरसन ने ढिलाई का फायदा उठाया और अमेरिका के लिए उड़ गया. यहीं से कहानी में ट्विस्ट आता है. वॉरेन एंडरसन भागा नहीं बल्कि बगाया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को एक फोन आया. फोन दिल्ली से आया था. फोन का असर ऐसा था कि तत्कालीन मुख्य सचिव ने भोपाल के कलेक्टर और एसपी को बुलाकर एंडरसन की जमानत करवा दी और उसे दिल्ली भेजवा दिया, वो भी बकायदा राज्य सरकार जहाज में. जिसे कैप्टन सैय्यद हामिद अली उड़ा रहे थे(बेचारे सरकारी ऑर्डर का पालन कर रहे थे). अर्जुन सिंह को किसका फोन आया था ये आज भी यक्ष प्रश्न है. अर्जुन सिंह आज भी खामोश हैं, कुछ नहीं बोल रहे हैं. सवाल यहीं उठता है, क्या अर्जुन सिंह को प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी का फोन आया था या गृहमंत्री पी.वी नरसिम्हा राव का?

इसके पहले सीबीआई के पूर्व निदेशक आर बी लाल भी ये मान चुके हैं कि एजेंसी पर सरकारी दबाव होता. उनके पास भी विदेश मंत्रालय से एंडरसन के लिए फोन आया था. गौर करने वाली बात ये है कि उस वक्त विदेश मंत्रालय राजीव गांधी देख रहे थे क्योंकि, उस समय विदेश मंत्री दिनेश सिंह बीमार पड़ गए थे.

राजीव गांधी को हमेशा भविष्य का नेता कहा गया. भारत में आईटी क्रांति लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है. अपने नाना की तरह वो भी विदेशियों से काफी अच्छे संबंध रखते थे. शायद इसीलिए उनके हाथ में भी नाना की तरह ही विदेश मंत्रालय था. बोफोर्स में भी राजीव जी का नाम आया. यहां भी राजीव जी हैं. वहां भी विदेशी बचा, यहां भी विदेश बच रहा है. बोफोर्स में भी सौदा हुआ था. भोपाल में भी यूनियन कारबाईड ने 4 करोड़ 70 लाख का मुआवजा देकर, सौदा ही तो किया. कारबाईड ने अपने आदमी को बचा लिया. आज अमेरिका खुलकर कह रहा है कि उसका भोपाल से कोई लेना-देना नहीं है. भोपाल हमारे न्याय क्षेत्र से बाहर है. यहां अमेरिका की ताकत का अंदाजा लगाइये. अमेरिका वियतनाम और इराक में तो न्याय का हवाला देता है, लेकिन भोपाल उसके न्याय क्षेत्र से बाहर है. पिछले महीने की ही बात कीजिए जब, ब्रिटिश कंपनी की गलती की वजह से मैक्सिको की खाड़ी में तेल का रिसाव हुआ. अमेरिका ने ब्रिटेन पर खासा दबाव बनाया और अब कोरड़ो पाउंड का हर्जाना मांग रहा है. वो ताकत का ढोल बजाता है और हम चुप हो जाते हैं. जबकि ढोल अंदर से खोखला ही होता है.

भोपाल का हाल सिर्फ नेताओं की देन नहीं है, इसमें ब्यूरोकेसी भी शामिल है, भले ही वो ये कहें कि हमारे ऊपर सरकारी दबाव था. दबाव था तो 25 साल बाद क्यों बता रहे हैं. उसी वक्त क्यों नहीं बोले? क्या किसी का डर था? कानून की बात करें तो पिछले ही साल शायद लॉ कमीशन ने ये मांग की थी कि 340 ए में भी दस साल की कैद का प्रावधान किया जाए. उसपर हमारे कानून मंत्री श्री विरप्पा मोइली ने कोई एक्शन नहीं लिया. कुछ करते तो शायद आज दो साल नहीं दस साल की सजा होती. खुद ही सोचिए कि 15 हजार मौतों और ना जाने कितनी हजारों की जिंदगी को मामूली रोड एक्सिडेंट की, लापरवाही की धारा से जोड़ दिया गया. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही कठघरे में हैं.

हालांकि, अब ओबामा के ऊपर भी एंडरसन को भारत को सौंपने के लिए दबाव बन रहा है. अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य फ्रांक कॉलिन ने ओबामा से कहा है की एंडरसन का गुनाह बहुत बड़ा है और उसे फौरन भारत के कानून के हवाले कर देना चाहिए. उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा कुछ चमत्कार हो, सालों बाद ही सही कम से कम सही और सच्चा न्याय तो मिले.

Monday, June 7, 2010

25 हजार, 25 साल, 25 मिनट, 25 हजार !


जो फैसला सोमवार 7 जून को आया उसके बारे में बात ना ही की जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि ये फैसला राहत नहीं देता, इंसाफ की महक नहीं फैलात. ये फैसला जख्मों को एक बार फिर से कुरेद गया. जाहिर कर गया कि इस देश में न्याय में देरी ही नहीं है, सच कहा जाए तो न्याय ही नहीं है. हमारा सर्वोपरी कानून कहता है कि एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए, भले ही सौ गुनहगार छूट जाए. और इस बात पर हमारा कानून पूरी तरह से अमल भी करता है. बेगुनहा को सजा हो या ना हो लेकिन सौ गुनहगार जरूर छूट जाते हैं.

ये सवाल आप से पूछता हूं, आखिर 25 साल में फैसला आने का क्या मतलब है? क्या कानून बीते 25 सालों में हुई टीस की भरपाई कर सकती है? क्या जहरीली गैस से प्रभावित लोगों के बेकार हो चुके अंगों में जान लाई जा सकती है? ये तो तभी नहीं हो सकता था जबकि फैसला 6 महीने या साल भर में हो जाता. लेकिन उस वक्त कम से कम ये तो हो ही सकता था की पीड़ितों के अंदर कानून के लिए शायद थोड़ी इज्जत बन जाती, पर जो हुआ वो उनके साथ किसी भद्दे मजाक से कम नहीं है. 25 साल फैसला आता है, सज़ा का ऐलान होता है और महज 25 मिनट के अंदर ही 25 हजार रुपए पर जमानत मिल जाती. उनका क्या जो 25 साल पहले मर गए, उनका क्या जो पिछले 25 सालों से मर रहे हैं और आगे ना जाने कब तक सिसकते रहेंगे. यही हमारा कानून है?

पिछले 25 सालों से कई सवाल हमारे आपके सामने हैं, लेकिन उनके जवाब भी शायदा उसी टॉक्सिक मेथाइल आइसोसाइनाइट गैस में विलीन हो गए जिसने हजारों का दम घोट दिया, लाखों को अपनी एड़ियां घिस-घिसकर मौत का इंतेजार करने के लिए छोड़ दिया.

कुछ बातें उनकी कर ली जाएं जिन्हें दोषी करार दिया तो गया लेकिन फिर आजाद कर दिया गया. मुख्य अभियुक्त जिसे वॉरेन एंडरसन जो इस त्रासदी का सूत्रधार था उसे तो कभी पकड़ा ही नहीं गया, आरोप होते हुए भी उसकी चमड़ी बेदाग है, बाकी आरोपियों में से एक आर.बी. राय चौधरी की मौत हो गई है. वहीं दोषी करार दिए गए यूनियन कारबाइड इंडिया के तत्कालीन निदेशक केशब महेंद्रा के साथ विजय गोखले, किशोर कामदार, जे मुकुंद, एसपी चौधरी, केवी शेट्टी और एसआई कुरैशी को सिर्फ 2 साल की सजा और एक लाख का जुर्माना लगाया गया, लेकिन अफसोस उन्हें भी 25 हजार की रकम पर खुली हवा में सांस लेने के लिए छोड़ दिया गया.

क्या हम अपने कानून को मानने के लिए बाध्य हैं? क्या हम कोई क्रांति नहीं कर सकते? क्या आंदोलन करने का जमाना लद गया, सिर्फ गांधी के जमाने में आंदोलन होते थे?

आपके विचार के इंतेजार में...

Monday, April 19, 2010

ओले-ओले-ओले....



जब भी कोई लड़की देखूं मेरा दिल दिवाना बोले ओले-ओले-ओले---- ओले-ओले-ओले.... गाऊं तराना यारा झूम-झूम के हौले-हौले----- ओले-ओले-ओले....

ये गाना फिल्म "ये दिल्लगी" का है... जो 1994 में आई थी... पात्र थे अक्षय कुमार, काजोल और सैफ अली खान... इस फिल्म के दो गाने बहुत हिट हुए थे... एक की लाइनें ऊपर लिख दी है... दूसरे गाने की लाइनें इस तरह से हैं...

नाम क्या है, प्यार का मारा... घर का पता दो, दिल है तुम्हारा... क्या करते हो, तुमसे प्यार... इसका नतीजा, जो भी हो यार... जो भी हो यार...

इस गाने को लिखने वाले के मन में ये गाना तब आया था जब वो मुंबई की बारिश में फंस गए थे और उनकी कार पर ओले गिरने शुरु हुए.

अब मुद्दे पर आ जाऊं नहीं तो ब्लॉग पढ़ने वाले भाग जाएंगे. पहली लाइन और विडियो को देखकर आप समझ ही गए होंगे कि मैं 'ओलों' की बात कर रहा हूं. सालों बाद ओले गिरते देखे. देखकर मन बहुत खुश हुआ. बचपन के वो दिन याद आए कि कैसे हम स्कूल जाते या आते वक्त ओले गिरने पर उन्हें अपनी वॉटर बॉटल में भर लिया करते थे. जिसकी बॉटल एयर टाइट होती थी उसके ओले देर तक वैसे ही ठोस बने रहते थे. जिसकी वॉटर बॉटल सामान्य होती थी, उसके ओले पानी हो जाते थे. चिढ़ाने में बड़ा मजा आता था.

आज नोएडा ऑफिस में काम कर रहा था तो अचानक मौसम ने पलटी खाई, बादल मचल-मचल कर आए, हवा बौरा गई, और गिरने लगे ओले. तब मेरे मन में कौंधा ये गाना " जब भी कोई लड़की देखूं मेरा दिल दिवाना बोले ओले-ओले-ओले---- ओले-ओले-ओले.... गाऊं तराना यारा झूम-झूम के हौले-हौले----- ओले-ओले-ओले.... "

तभी शोर होने लगा, इनपुट से आवाज आई, ब्रेकिंग मारो आउटपुट को... दिल्ली में पानी बरसा, नोएडा में ओले गिरे. सुनकर हंसी आ गई. ओले गिरना भी ब्रेकिंग बन सकता है. हम तो अपने घर-गांव में ना जाने कितनी बार ओले देख चुके थे. लेकिन ऑफिस के अंदर का माहौल एकदम से बाहर के मौसम की तरह बदल गया. लोग खिड़की की तरफ ओले देखने के लिए भागे. जैसे आसमान से ओले नहीं हीरे गिर रहे हों. बाद में कुछ लोगों से बात हुई तो पता चला कि उन्होंने ओले पहली बार देखे हैं

दोष मेरे मित्रों का नहीं है, शायद उन्होंने दिल्ली में कभी ओले गिरते नहीं देखे या फिर, सिर्फ कहावत में ही सुना है कि... सिर मुड़ाते ओले पड़े. मैं उनका मजाक नहीं उड़ा रहा हूं. सिर्फ इतना सोच रहा हूं कि हमलोग क्या-क्या खोते जा रहे हैं. अपने पर्यावरण को कितना बेगाना बनाते जा रहे हैं. बच्चों की किताबे देखता हूं तो कई ऐसी चीजें दिखती हैं जो हमने देखी है और आज वो सिर्फ किताबों में ही देख रहे हैं, मसलन, घर के रोशनदान से गौरेया का घोंसला गायब हो गया है और गायब हो गई हैं उसकी गौरेया भी. अब आम के पेड़ों पर तोते कम ही दिखते हैं. चील, गिद्ध तो ना जाने कहां उड़ गए हैं. ऐसी कई चीजे हैं जो हम खोते जा रहे हैं. जरूरत पर्यावरण को बचाने से ज्यादा खुद को बचाने की है... सोचिए...


ओले-ओले-ओले....ओले-ओले-ओले....ओले-ओले-ओले....ओले-ओले-ओले....

Sunday, March 28, 2010

कहां जा रहा है माओवाद...?



खतरे का निशान लाल रंग का होता है. भारत में माओवाद लाल रंग का पर्याय बन चुका है. बिहार, झारखण्ड, उडिसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल वो इलाके हैं जहां माओवाद का जाल बेहद मजबूती से बुना हुआ है. लेकिन अब ये जाल और भी महीन और ताकतवर होने वाला है. वजह है माओवाद का कॉरपोरेट कल्चर. जी हां माओवादी कॉरपोरेट कल्चर अपना रहे हैं. और बकायदा बेरोजगारों को तीन हजार रुपए महावार पर नौकरी दे रहे हैं. इतना ही नहीं अगर उगाही ज्यादा की तो इन्सेंटिव भी मिलेगा. जी हां, ये एक भयानक सच है, जो आने वाले समय की तस्वीर की बानगी है. माओवाद की वो ललकार, जिसकी गूंज अभी भले ही ना सुनाई दे, लेकिन जब ये गूंज सुनी जाएगी तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो. माओवादी भारत की बेरोजगारी, अशिक्षा और पिछड़ेपन का सहारा लेकर ऐसी घात करने की ताक में हैं, जिसकी चोट बहुत गहरी होने वाली है.

तनख्वाह में मिलेंगे 3000 रु/ महीना, काम बढ़िया करने पर इनसेंटिव भी मिलेगा. सच मानिए ये किसी कॉरपोरेट कंपनी का विज्ञापन नहीं है. ये विज्ञापन है माओवादियों का उन बेरोजगार युवकों के लिए जिनके पास ना तो नौकरी है, ना तो खाने के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़. बस इसी का फायदा उठाकर माओवादियों ने शुरू कर दी है रिक्रूटमेंट, गरीब और बेरोजगार युवकों को दी जा रही है तीन हजार रुपए प्रति महीना की नौकरी. अगर ये लड़के किसी से पैसों की ज्यादा उगाही कर लाते हैं तो इन्हें अलग से इनसेंटिव भी दिया जाएगा. सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि माओवादी नेतृत्व वाले नक्सल प्रभावित राज्यों के पिछड़े इलाकों में माओवादियों की ये स्कीम बखूबी काम भी कर रही है. सोचिए खुद अधिकारी इस बात की पुष्टी कर रहे हैं. नक्सलियों के हमलों और उनसे अपनी सुरक्षा के डर से नक्सल प्रभावित राज्यों के उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और यहां तक कि कुछ सरकारी अधिकारी पहले से ही माओवादियों को पैसे देते आए हैं. अब जबकि माओवादी खुलकर भर्ती कर रहे हैं तो इसका अंजाम क्या होगा, कोई भी इसका अंदाजा आसानी से लगा सकता है. सिर्फ भर्ती ही क्यों, माओवादी तो अफीम की खेती भी कर रहे हैं. अपहरण का धंधा तो पहले से ही चल रहा है. अब तो इनके कैडर में काम करने के लिए लड़के हैं, अफीम की खेती से पैसा आ रहा है, और अपहरण कर पैसे पहले से कमाए जा रहे हैं. यानी पूरा का पूरा माओवाद मुड रहा है नए, आधुनिक, तेज-तर्रार व्यवस्था और रणनीति के साथ, अपना रहा है कॉरपोरेट कल्चर. वो दिन दूर नहीं जब माओवादी CEO अपने आंकड़े वेब साइट पर कुछ इस तरह से देंगें....

1. युवकों की जरूरत, महीने की तनख्वाह, इंसेंटिव, खाना और रहने की जगह मुफ्त.
2. बीते बिजनेस इयर में हमने इतने अपहरण किए, इतनी रैनसम ली.
3. कुल टर्न ओवर इतने रुपए का.
4. इनपुट रकम इतनी, आउटपुट रकम उतनी.
5. पुलिस, सुरक्षा एजेंसियों की वजह से इतने का घाटा.
6. अगले बिजनेस इयर के लिए इतने की भर्ती और इतनी उगाही का टारगेट.
7. ज्यादा जानकारी और जुड़ने के लिए यहां सम्पर्क करें.

हालांकि, माओवादियों की रणनीति के काट के तौर पर सरकार ने आठ राज्यों के 34 जिलों पर अपनी नजर गड़ा दी है. इसके अलावा, गृह मंत्रालय राज्य पुलिस बलों की भी क्षमता बढ़ाने पर विचार कर रहा है. दूसरी ओर केन्द्रीय बलों की तैनाती कर खुफिया जानकारी को बांटना, प्रशिक्षण में मदद पहुंचाने की प्रक्रिया भी तेज कर दी गई है. इसके बावजूद भारत में बढ़ती माओवाद की गंभीर समस्या को इसी से समझा जा सकता है कि पिछले साल हुई माओवादी हिंसा में करीब 1000 लोगों ने अपनी जानें गंवाई, जो 1971 के बाद सबसे बड़ा आंकड़ा है.

माओवाद का पक्षधर नहीं हूं क्योंकि, इसके बारे में जानकारी सीमित है. लेकिन इतना तो कह सकता हूं कि माओवाद अपनी दिशा से भटक रहा है. आपसे पूछता हूं, कहां जा रहा है माओवाद...?

Friday, March 12, 2010

खेल का खेल !


खेल, जीवन का अहम हिस्सा. खेलने से ना सिर्फ शरीर दुरुस्त बनाता है बल्कि, दिमाग को भी सही समय पर सही निर्णय लेने की तरकीब आ जाती है. और अब तो वो कहावत भी झूठी पड़ गई है कि 'पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब' अब तो हातल ये है कि जो पढ़ता है वो खोता है और जो खेलता वो खेलता है पैसों में.

खेल को लेकर इतनी भूमिका इसलिए बांध रहा हूं क्योंकि जिस खेल के बारे में लिखने जा रहा हूं उसको मैंने कभी नहीं खेला. एक बार फील्ड पर गया तो हॉकी की बॉल उधार मांगकर ले आया और MNIT के बेकार पड़े स्वीमिंग पूल में उससे क्रिकेट खेलनी शुरू कर दी. शायद मेरे ही जैसों की वजह से हॉकी की इतनी बदतर हालत हुई है. 12 मार्च को भारत विश्व हॉकी कप में अपना अंतिम मैच भी अर्जनटीना से 2-4 से गंवा बैठा. दुःख हुआ, और इसके पीछे भी मैं अपने को ही जिम्मेदार मानता हूं, क्योंकि हॉकी खेलने आती तो क्या पता आज मैं टीम में होता और 1-2 गोल कर दी देता. वैसे बता दूं कि मेरे नाना जी और मामा जी दोनों ही हॉकी खिलाड़ी रह चुके हैं. लेकिन मेरा मन कभी हॉकी में नहीं लगा. शायद इसीलिए मम्मी ने भी क्रिकेट नहीं खेलने दी, हॉकी के लिए कहता तो क्या पता हामी भर दी जाती.

पर अब क्या? क्या फिर से हॉकी के साथ वही सलूक किया जाएगा, जो रवैया विश्वकप के पहले था. खेलने के लिए सुविधाएं नहीं, अच्छी किट नहीं, बढ़िया कोच नहीं, सही रणनीति नहीं. क्या खुद को गलाकर खेलें हॉकी हमारे हॉकी खिलाड़ी ?

कुछ दस दिन पहले लुधियाना से एक खबर आई थी कि, अंडर 14 और अंडर 16 के हॉकी खिलाड़ियों को हॉस्टल में 2 दिन तक खाना नहीं मिला. ये मजाक नहीं है, कड़वा सच है. अंडर 14 और अंडर 16 के हॉकी खिलाड़ी जिन्हें कल को राष्टीय खेल का परचम बुलंद करना है, उनको 2 दिन खाना नहीं मिला. ऐसा नहीं है कि बच्चे भूखे रहे, अपने पैसों से खाना खरीद कर खाया. पढ़ना हो तो सेल्फ फाइनेन्सड कोर्स में दाखिला लो, खेलना हो तो खुद के पैसों से खेलों, नौकरी करनी हो तो यंग एंत्रप्रेन्योर बन जाओ. सेल्फ स्किल्ड बनों, मल्टी स्किल्ड बनों पर किसी तरह की मदद की उम्मीद मत करों. भला ऐसे में आप कैसे किसी खिलाड़ी से गोल्ड या विश्वकप की उम्मीद कर सकते हैं.

एक सवाल जो मेरे मन में है, आप सब के बीच भी पहुंचाना चाहता हूं. टीवी पर सहवाग, प्रियंका चोपड़ा और ओलंपिक शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौर हमारी हॉकी टीम के लिए प्रमोशन करते दिखे. लेकिन इनमें से कोई भी हॉकी मैच देखने स्टेडियम पर नहीं पहुंचा. अगर पहुंचा, तो मैं ये चाहूंगा कि मेरी नॉलेज को पूरा करने के लिए ऐसी कोई फोटो या विडियो क्लिप आप में से कोई भी मुझे मेरे ई-मेल (ankura107@gmail.com) पर भेजे दे. आप सब खुद इस बात को समझिए कि कोई भी खिलाड़ी तब तक अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता है जब तक कि उसे हमार-आपका साथ नहीं मिलता. क्रिकेट इसीलिए सफल हुआ क्योंकि क्रिकेट को बच्चा-बच्चा पसंद करता है. बच्चा ठीक से खड़ा होना भी सीख नहीं पाता और पापा उसके हाथ में बैट थमा देते हैं. बेटा बनेगा तो सचिन ही बनेगा. दूसरों को क्या कहूं मैं खुद दो चार हॉकी खिलाड़ियों के अलावा किसी और का नाम नहीं जानता.

खैर जो हुआ सो हुआ. अब नई शुरुआत करनी है. हॉकी के लिए एक साथ खड़ा होना है. कोशिश यही रहेगी कि एक दूसरे के साथ हॉकी से हॉकी मिलाकर खड़े हों.

Wednesday, March 10, 2010

PCB नाराज है... ?



इस पोस्ट को लिखने का सीधा सा मतलब मेरे लिए इतना है कि मैं क्रिकेट का दीवाना हूं. हालांकि अभी क्रिकेट देखने का उतना मौका नही मिल पाता है फिर भी न्यूज रूम में देख ही लेता हूं.

मैं क्रिकेटर बनना चाहता था. लेकिन मम्मी को पसंद नहीं था, मैं कुछ कर भी नहीं सकता था.(आज भी मम्मी के खिलाफ नहीं जा सकता).

क्रिकेट की बात इसलिए कर रहा हूं क्योकिं दो दिन पहले(10 मार्च) का दिन क्रिकेट में ऐसा रहा, जैसा पहले कभी नहीं रहा. क्यों, क्योंकि ये दिन रहा बड़े और कड़े फैसले लेने का. PCB यानी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने अपने दो बड़े क्रिकेटरों, मोहम्मद यूसुफ और यूनिस खान पर अनिश्चितकाल के लिए बैन लगा दिया. अकमल बंधुओं पर 20 लाख का जुर्माना और अपने फोडू बल्लेबाज अफरीदी पर 30 लाख का जुर्माना लगा. जब ऐसे फैसले लिए जाते हैं तो काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा. फैसला जब हमारे और आपके पास पहुंचता है तो एक झटका सा लगता है.

लेकिन क्या PCB सचमुच नाराज है ? क्या इतना कड़ा निर्णय लेना वाकइ PCB के सही रवैये को दर्शाता है ?

मेरी समझ में नहीं. इसलिए, क्योंकि, पहले खबर आई थी कि दोनों खिलाड़ियों(यूसुफ, यूनिस) पर आजीवन पाबंदी लगा दी गई है. फिर एजेंसी के हवाले से खबर आई कि बैन ताउम्र नहीं, बेमियादी है. हो सकता है कि पहले जो खबर मिली उसमें सूत्रों से कुछ गलती हो गई हो, लेकिन इस बात की ज्याद संभावना है कि पाकिस्तान ने अपना फैसला बाद में बदला हो. इसके पहले भी PCB ने अपने कई खिलाड़ियों की करतूतों पर सजा सुनाते हुए आजीवन बैन लगाया था, फिर सजा में ढील दी गई. यहां भी कुछ ऐसा ही लगता है.

यहां तक तो फिर भी बात समझ में आती है कि, आपका अपना खिलाड़ी है, देश के लिए जी जान से खेलता है, थोड़ी नरमी दिखा दी तो क्या गलत किया. लेकिन ये समझ नहीं आता कि आप देश के साथ धोखा करने वाले खिलाड़ी को इतनी कमजोर सजा क्यों दे रहे हैं? जिसने खराब प्रदर्शन किया उसको बेमियादी बैन और जिसपर मैच फिक्सिंग का आरोप है उसपर महज कुछ रुपयों का जुर्माना? फिक्सिंग का जुर्म अभी साबित नहीं हुआ है लेकिन फिक्सिंग को खराब प्रदर्शन से नीचले स्तर का अपराध मानना क्या ये सही है? वैसे खबरें तो ये भी हैं कि दोनों खिलाड़ियों पर नाफरमानी की गाज गिरी है. दोनों खिलाड़ियों को पहले ही आगाह कर दिया गया था कि गुटबाजी नहीं खेल पर ध्यान दो. PCB की तरफ से अभी तक कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा जा रहा है. बात धुंधलके में है. बात कब साफ होगी पता नहीं. वैसे भी PCB जो चाहता है वहीं करता है. अगर खिलाड़ियों में गुटबाजी है तो इसकी वजह का पता लगाना भी PCB का ही काम है, ना कि सिर्फ सजा देना.

शायद अगला पोस्ट इसके तुरंत बाद मिले. खेल से ही संबंधित होगा. उसमें भी एक गेंद को एक लकड़ी के टुकड़े से मारा जाता है और खिलाड़ी गेंद के चक्कर में चकरधिन्नी बन जाते हैं...

सूचना में कोई गलती हो तो सही जानकारी की प्रतीक्षा में...

Tuesday, March 9, 2010

मेरा पहला ब्लॉग

मंगलवार ०९ मार्च २०१०, हिंदुस्तान के इतिहास का नया अध्याय। महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में स्वीकृति मिली। भारत में महिलाओं के नए युग की शुरुआत। इस मौके पर मैंने भी सोच कि क्यों ना मैं भी काफी दिनों से सोचे जा रहे काम(ब्लॉग लिखना) का श्री गणेश कर दूं, तो कर दिया श्री गणेश, गणेश जी का नाम लेकर।


अपने ब्लॉग का नाम मैंने 'क्या लिखू, क्या कहूं' इसलिए दिया है क्योंकि, मेरी समझदानी थोड़ी देर से काम करती है, समझ नहीं आता कि क्या लिखू, क्या कहूं। वैसे सबसे पहले देश की महिलाओं को बधाई देता हूं, उनकी ऐतिहासिक जीत के लिए। राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल को मंजूरी मिलने से एक संदेश साफतौर से समाज में जाता है कि कोई कितना भी विरोध कर ले, अब महिलाओं को रोक पाना मुमकिन नहीं। यहां पर अपनी आदर्णीय माता जी के बारे में कुछ कहना चाहता हूं. ये महिला बिल अगर बीस साल पहले पास हो गया होता तो मेरी माता जी भी राज्य या लोकसभा की सदस्य होती. मैं भी छत पर बत्ती लगी गाड़ी में धौंस जमाकर घूमता.


वापस महिला बिल के मुद्दे पर आते हैं. सदन में महिलाओं की एक तिहाई भागेदारी अभी भी उतनी आसान नहीं है, जितनी दिख रही है. बिल को अभी लोकसभा में, फिर 15 राज्यों की विधानसभाओं में भी पारित होना है. राष्ट्रपति की मुहर भी लगनी है, हालांकि हमारी राष्ट्रपति महिला है सो इतना तो आश्वस्त हूं कि बिल को दोबारा लौटाया नहीं जाएगा. यहां पर मैं वृन्दा करात के उस बयान का जिक्र करना चाहता हूं जो उन्होंने राज्यसभा में बहस के दौरान दिया, उन्होंने कहा कि 'मुझे पूरा विश्वास है कि महिलाएं अपने कर्तव्य, कर्मठता और बलिदान के बूते, 33 फीसदी के दायरे को बढ़ाकर निश्चित ही 40 से 50 फीसदी तक पहुंचा देंगी।'


वृन्दा करात की इस बात में अहम नहीं, विश्वास दिखता है. निजीतौर पर मुझे महिला आरक्षण के लागू हो जाने पर खुशी होगी। ऐसा मैं इसलिए कहा रहा हूं क्योंकि मेरे घर में चार महिलाएं हैं। मेरी तीन बहने और मेरी मां। इन चारों के साथ रहकर मैंने हमेशा अपने आपको सुरक्षित महसूस किया है। मैं समझता हूं कि महिलाएं हमें हमसे कहीं अच्छी तरह से समझती हैं, भले ही वो किसी भी रूप में क्यों ना हो। मां, बहन या दोस्त। इसके आगे के रिश्तों के बारे में इसलिए नहीं लिख सकता क्योंकि अभी मैं ऐसे किसी रिश्ते से जुड़ा नहीं हूं, जब ये रिश्ता बन जाएगा तो जरूर लिखूंगा...


फिलहाल अपने पहले ब्लॉग पोस्ट में इतना ही लिख रह हूं, आगे अगर समझ सका कि किसी बात पर दो पंक्तियां लिख सकता हूं तो जरूर आप मुझे पढ़ेंगे... शुभरात्रि...