Saturday, June 26, 2010

अभिमन्यु

एक अभिमन्यु महाभारत का था, ये अभिमन्यु भारत में था. वो अपने पिता से चक्रव्यूह को तोड़ने की कला अपनी मां के पेट से सीख कर आया था. ये अपने नाना से चक्रव्यूह रचने की कला सीख कर पैदा हुआ था. वो अभिमन्यु सातवां द्वार तोड़ना नहीं सीख सका था क्योंकि, उसकी मां सो गईं थी. ये अभिमन्यु भी कहीं चूक गया तभी तो बिखर गया.



मैं उस घटना की बात कर रहा हूं जो मेरे पैदा होने से साढ़े चार साल पहले, जून 1980 में घटी. वो अभिमन्यु रथ से गिरकर, अपनों के ही तीरों से भेद दिया गया था. ये अभिमन्यु अपने उड़न खटोले के साथ गिरा और कहने वाले तो ये कहते हैं कि इसे मारने की भी साज़िश अपनों ने ही रची.(इस बात को जोर दे कर इसलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि, 8-10 आर्टिकल पढ़ लेने से, 10-20 लोगों से सुन लेने भर से आप उस वक्त की सच्चाई या सच्चाई के अहसास को नहीं जान सकते.)
उस अभिमन्यु ने अपने ही भाइयों और चाचा के विरुद्ध युद्ध लड़ा तो, ये अभिमन्यु भी अपने ही लोगों के लिए, अपनों से ही लड़ता दिखा. वो अभिमन्यु भी अपने शत्रुओं को पराजित करने के लिए उतावला था, इसका भी उतावलापन कुछ कम नहीं था. इस अभिमन्यु को हर चीज में आगे रहने, आगे बढ़ने, जीतने और कभी ना हारने का जुनून था. उस अभिमन्यु ने भले ही कभी राज ना किया हो लेकिन, इस अभिमन्यु ने राज किया, भले ही इसके हाथों में डोर नहीं थी, लेकिन सबकी लगाम यही कसता था. आलम ये था कि दरबार के मंत्रियों को इस अभिमन्यु की चप्पलें उठाते भी देखा गया.
उस अभिमन्यु के पिता का गांडीव गरजता था तो, इस अभिमन्यु की मां की हुंकार से सभी हिल जाते थे. वो अभिमन्यु भी हठी था तो, इसे भी कुछ कर गुजरना था, भले ही, उसके लिए कुछ भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े. इस अभिमन्यु ने कभी-किसी की परवाह नहीं की. उस अभिमन्यु के पिता को भी एक बार अहंकार ने जकड़ा था तो, इस अभिमन्यु की मां भी अहं का शिकार हुई. जब वो अभिमन्यु मारा गया तो उसके पिता उससे दूर कहीं और लड़ रहे थे. जब ये अभिमन्यु मरा तो उसके और उसकी मां के बीच की दूरियों की कहानियां सबके बीच चर्चा में थी.
उस अभिमन्यु ने महाभारत को जीत एक नया साम्राज्य खड़ा करना चाहा. इस अभिमन्यु ने भी भारत को बदल एक नए भारत का सपना संजोया. वो अभिमन्यु मारा गया, उसके पिता ने उसका बदला लिया, महायुद्ध जीता. मारा तो ये अभिमन्यु भी गया, लेकिन इसकी मां ने रोने के अलावा कुछ नहीं किया और इस अभिमन्यु का सपना अभी भी सपना ही है...

Tuesday, June 8, 2010

सरकार या दलाल ?
















मेरे ब्लॉग का ये पोस्ट पिछले पोस्ट की कड़ी मान कर पढ़ें. बुधवार 9 जून को भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े दो फैसले लिए गए. पहला, केन्द्र ने ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का गठन किया, तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी ने समीक्षा कमेटी बनाई. अगर यही करना था तो 25 साल इंतजार किस बात का किया. क्या भोपाल के लोगों की आहें, रोना और टीस सुनने में मज़ा आ रहा था.

इस घटना से जुड़े एक तथ्य पर गौर करें तो पता चलता है कि ये कांड उस वक्त हुआ था जब कांग्रेस की सरकार थी. फैसला तब आया है जब कांग्रेस की सरकार है. लेकिन इसमें एक और तथ्य भी हैं. आज जो स्थिति है, वो भी कांग्रेस सरकार की ही वजह से है.

2-3 दिसंबर 1984 को जब ये हादसा हुआ उस वक्त राजीव गांधी जी प्रधानमंत्री थे, अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और पी वी नरसिम्हा राव गृहमंत्री थे. हादसे के बाद यूनियन कारबाइड के वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार भी गिया गया था. लेकिन महज कुछ घंटों बाद ही उसे जमानत पर छोड़ दिया गया. ये कोई गलती नहीं थी. गलती इसके साथ हुई. जमानत के साथ एंडरसन पर इस बात की पाबंदी नहीं लगाई गई कि वो देश छोड़कर नहीं जा सकता. साथ ही एंडरसन ने वादा खिलाफी की. उसने कहा था कि केस के मामले में जबभी जरूरत पड़ेगी वो सहयोग देने भारत आएग. लेकिन ऐसा कुछ भी ना हुआ, ना हो रहा है. एंडरसन ने ढिलाई का फायदा उठाया और अमेरिका के लिए उड़ गया. यहीं से कहानी में ट्विस्ट आता है. वॉरेन एंडरसन भागा नहीं बल्कि बगाया गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को एक फोन आया. फोन दिल्ली से आया था. फोन का असर ऐसा था कि तत्कालीन मुख्य सचिव ने भोपाल के कलेक्टर और एसपी को बुलाकर एंडरसन की जमानत करवा दी और उसे दिल्ली भेजवा दिया, वो भी बकायदा राज्य सरकार जहाज में. जिसे कैप्टन सैय्यद हामिद अली उड़ा रहे थे(बेचारे सरकारी ऑर्डर का पालन कर रहे थे). अर्जुन सिंह को किसका फोन आया था ये आज भी यक्ष प्रश्न है. अर्जुन सिंह आज भी खामोश हैं, कुछ नहीं बोल रहे हैं. सवाल यहीं उठता है, क्या अर्जुन सिंह को प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी का फोन आया था या गृहमंत्री पी.वी नरसिम्हा राव का?

इसके पहले सीबीआई के पूर्व निदेशक आर बी लाल भी ये मान चुके हैं कि एजेंसी पर सरकारी दबाव होता. उनके पास भी विदेश मंत्रालय से एंडरसन के लिए फोन आया था. गौर करने वाली बात ये है कि उस वक्त विदेश मंत्रालय राजीव गांधी देख रहे थे क्योंकि, उस समय विदेश मंत्री दिनेश सिंह बीमार पड़ गए थे.

राजीव गांधी को हमेशा भविष्य का नेता कहा गया. भारत में आईटी क्रांति लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है. अपने नाना की तरह वो भी विदेशियों से काफी अच्छे संबंध रखते थे. शायद इसीलिए उनके हाथ में भी नाना की तरह ही विदेश मंत्रालय था. बोफोर्स में भी राजीव जी का नाम आया. यहां भी राजीव जी हैं. वहां भी विदेशी बचा, यहां भी विदेश बच रहा है. बोफोर्स में भी सौदा हुआ था. भोपाल में भी यूनियन कारबाईड ने 4 करोड़ 70 लाख का मुआवजा देकर, सौदा ही तो किया. कारबाईड ने अपने आदमी को बचा लिया. आज अमेरिका खुलकर कह रहा है कि उसका भोपाल से कोई लेना-देना नहीं है. भोपाल हमारे न्याय क्षेत्र से बाहर है. यहां अमेरिका की ताकत का अंदाजा लगाइये. अमेरिका वियतनाम और इराक में तो न्याय का हवाला देता है, लेकिन भोपाल उसके न्याय क्षेत्र से बाहर है. पिछले महीने की ही बात कीजिए जब, ब्रिटिश कंपनी की गलती की वजह से मैक्सिको की खाड़ी में तेल का रिसाव हुआ. अमेरिका ने ब्रिटेन पर खासा दबाव बनाया और अब कोरड़ो पाउंड का हर्जाना मांग रहा है. वो ताकत का ढोल बजाता है और हम चुप हो जाते हैं. जबकि ढोल अंदर से खोखला ही होता है.

भोपाल का हाल सिर्फ नेताओं की देन नहीं है, इसमें ब्यूरोकेसी भी शामिल है, भले ही वो ये कहें कि हमारे ऊपर सरकारी दबाव था. दबाव था तो 25 साल बाद क्यों बता रहे हैं. उसी वक्त क्यों नहीं बोले? क्या किसी का डर था? कानून की बात करें तो पिछले ही साल शायद लॉ कमीशन ने ये मांग की थी कि 340 ए में भी दस साल की कैद का प्रावधान किया जाए. उसपर हमारे कानून मंत्री श्री विरप्पा मोइली ने कोई एक्शन नहीं लिया. कुछ करते तो शायद आज दो साल नहीं दस साल की सजा होती. खुद ही सोचिए कि 15 हजार मौतों और ना जाने कितनी हजारों की जिंदगी को मामूली रोड एक्सिडेंट की, लापरवाही की धारा से जोड़ दिया गया. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही कठघरे में हैं.

हालांकि, अब ओबामा के ऊपर भी एंडरसन को भारत को सौंपने के लिए दबाव बन रहा है. अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य फ्रांक कॉलिन ने ओबामा से कहा है की एंडरसन का गुनाह बहुत बड़ा है और उसे फौरन भारत के कानून के हवाले कर देना चाहिए. उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा कुछ चमत्कार हो, सालों बाद ही सही कम से कम सही और सच्चा न्याय तो मिले.

Monday, June 7, 2010

25 हजार, 25 साल, 25 मिनट, 25 हजार !


जो फैसला सोमवार 7 जून को आया उसके बारे में बात ना ही की जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि ये फैसला राहत नहीं देता, इंसाफ की महक नहीं फैलात. ये फैसला जख्मों को एक बार फिर से कुरेद गया. जाहिर कर गया कि इस देश में न्याय में देरी ही नहीं है, सच कहा जाए तो न्याय ही नहीं है. हमारा सर्वोपरी कानून कहता है कि एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए, भले ही सौ गुनहगार छूट जाए. और इस बात पर हमारा कानून पूरी तरह से अमल भी करता है. बेगुनहा को सजा हो या ना हो लेकिन सौ गुनहगार जरूर छूट जाते हैं.

ये सवाल आप से पूछता हूं, आखिर 25 साल में फैसला आने का क्या मतलब है? क्या कानून बीते 25 सालों में हुई टीस की भरपाई कर सकती है? क्या जहरीली गैस से प्रभावित लोगों के बेकार हो चुके अंगों में जान लाई जा सकती है? ये तो तभी नहीं हो सकता था जबकि फैसला 6 महीने या साल भर में हो जाता. लेकिन उस वक्त कम से कम ये तो हो ही सकता था की पीड़ितों के अंदर कानून के लिए शायद थोड़ी इज्जत बन जाती, पर जो हुआ वो उनके साथ किसी भद्दे मजाक से कम नहीं है. 25 साल फैसला आता है, सज़ा का ऐलान होता है और महज 25 मिनट के अंदर ही 25 हजार रुपए पर जमानत मिल जाती. उनका क्या जो 25 साल पहले मर गए, उनका क्या जो पिछले 25 सालों से मर रहे हैं और आगे ना जाने कब तक सिसकते रहेंगे. यही हमारा कानून है?

पिछले 25 सालों से कई सवाल हमारे आपके सामने हैं, लेकिन उनके जवाब भी शायदा उसी टॉक्सिक मेथाइल आइसोसाइनाइट गैस में विलीन हो गए जिसने हजारों का दम घोट दिया, लाखों को अपनी एड़ियां घिस-घिसकर मौत का इंतेजार करने के लिए छोड़ दिया.

कुछ बातें उनकी कर ली जाएं जिन्हें दोषी करार दिया तो गया लेकिन फिर आजाद कर दिया गया. मुख्य अभियुक्त जिसे वॉरेन एंडरसन जो इस त्रासदी का सूत्रधार था उसे तो कभी पकड़ा ही नहीं गया, आरोप होते हुए भी उसकी चमड़ी बेदाग है, बाकी आरोपियों में से एक आर.बी. राय चौधरी की मौत हो गई है. वहीं दोषी करार दिए गए यूनियन कारबाइड इंडिया के तत्कालीन निदेशक केशब महेंद्रा के साथ विजय गोखले, किशोर कामदार, जे मुकुंद, एसपी चौधरी, केवी शेट्टी और एसआई कुरैशी को सिर्फ 2 साल की सजा और एक लाख का जुर्माना लगाया गया, लेकिन अफसोस उन्हें भी 25 हजार की रकम पर खुली हवा में सांस लेने के लिए छोड़ दिया गया.

क्या हम अपने कानून को मानने के लिए बाध्य हैं? क्या हम कोई क्रांति नहीं कर सकते? क्या आंदोलन करने का जमाना लद गया, सिर्फ गांधी के जमाने में आंदोलन होते थे?

आपके विचार के इंतेजार में...