Wednesday, February 2, 2011

हमारी इमारत...




इमारत से धुंध हटेगी...
पुरानी नेम प्लेट पर जमी गर्द हटेगी...
सूरज आज कोहरे की चादर से बाहर निकला है...
दिल में दबे दर्द की टीस क्या कुछ कम होगी...
जिस इमारत में प्यार की ईंटों को...
मोहब्बत से जोड़ा था...
आज फिर उस इमारत को दूर से देखा...
सोचा धुंध है...
चार कदम आगे बढ़ा...
इमारत के किनारों पर...
टिमटिमाती रोशनी दिखी...
दिल को सुकून मिला...
जिस इमारत को अपना कहते हैं...
उसपर आज भी शबनमी बूंदें ठहरती हैं...
अब इमारत के और नजदीक था...
इमारत अभी भी धुंधली थी...
अब समझ आया...
जिसे धुंध समझ रहे थे...
वो तो धूल है...
इमारत के किनारों से टिमटिमाती रोशनी का सच भी सामने था...
टूटे हुए शीशे से...
बल्ब की रोशनी झांक रही थी...
शायद तकदीर में यही था...
दोस्ती सूरज से की थी...
निभाने जुगनु आया...

2 comments:

  1. sundar likha hai. jankar khushi hui ki aap kavitaen bhi likhte hain. badhai jari rakhiye. shyam mishra

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  2. आपकी इस कविता पर एक शेर याद आया है
    यूं तो परिन्दे भी नहीं रहते पराए आशियाने में अपनी तो उम्र गुजरी हैं किराए के मकानो में

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